Five Ideas On Reimagining Philanthropy with Societal Platform Thinking

Rohini Nilekani, chairperson, Arghyam, shares five ideas on reimagining philanthropy with societal platform thinking

2020 has captured the imagination with its promise of being near enough to set achievable targets, yet distant enough to envision transformation. With the end of 2019 weeks away, Mint invites thought leaders to share their vision for the next decade. Rohini Nilekani, chairperson, Arghyam, a foundation for water security, shares five ideas on reimagining philanthropy with societal platform thinking.

Design for scale from the start
What works at scale may be different from scaling what works. Pilots often succeed, while scale-up often fails when the context changes. We have to design for scale even if it’s a small implementation. This requires a technology backbone. We can’t start from the technology; we have to first define the problem correctly. Then we will be technology-enabled, not technology-led.

A unified but not uniform structure
Complex societal issues need creative collaboration between samaaj, bazaar and sarkar. Design to reduce the friction for such collaboration using a platform approach, where each sector can contribute what they do best, and pool knowledge back onto the platform. A unified but not uniform structure allows contextual responses and diversity at scale.

Let go of control, allow innovation
No single institution or effort can effectively create solutions for societal problems. Let go of control over the idea; don’t hold on to the data. Focus on building open public digital goods. Allow others to innovate on top of your own innovation. That is the only way in which we can get ahead of the problem. Missions must scale even if organizations occasionally fail.

Distribute the ability to solve
When one solution is pushed down the pipe, it prevents the discovery of others. People everywhere have ideas suited to solve their own problems. If we can create shared infrastructure and toolkits, it builds local capacity. People can become part of a solution rather than remaining part of the problem, or dependent on someone else’s solution.

System stewards as positive catalysts
Any societal platform needs a bold steward, willing to hold the moral compass and risk failure. A system steward must persist as a positive catalyst that continuously creates opportunities and sustains the grammar of the intent. Issues of governance and accountability have to be managed.This is a call to action for some of our most wealthy philanthropists to become system stewards.

Get, Set, NGO: How non-profit sector is going through remarkable change in India

The nonprofit sector is undergoing a remarkable change in India, powered by technology, young professionals and committed funders.

“What’s exciting for India is the innovation that’s happening around young entrepreneurs, how they are leveraging technology and how they are building communities that take more ownership,” she says. Rohini Nilekani, founder-chairperson of water and sanitation foundation Arghyam, says she is seeing more young, urban professionals enter the social sector, with a different approach to problem solving. “These are young, highly educated professionals who are looking to create more engagement to collectively solve a problem,” she says, while cautioning that professionalism in the social sector needs to be accompanied by passion and vision.

“Twenty years ago, a more long-term view would be taken. Then, it became a big thing and civil society organisations were spending half their time reporting impact rather than effecting social change. I think the pendulum is now swinging back,” says Nilekani.

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एक दूसरे के साथ बातें करने से स्वस्थ रहते हैं पेड़

परवाह… इस बार त्योहारों में परिवार के साथ उत्सव मनाते हम कुछ वक्त पेड़ों के रोचक दुनिया को भी जानें।

अब ज्यों ही त्योहारों का मौसम आ रहा है, हम इस साल भरपूर मानसून के लिए खुश हो सकते हैं। दुर्भाग्य से कई इलाके ऐसे भी हैं जहां बाढ़ के गंभीर हालात बने। इस देश में हमें अब बदलते वातावरण के साथ अतिवृष्टि और बाढ़ से निपटना सीखना होगा। पेड़ और जंगल इसके बचाव की रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये सूखे महीनों के लिए पानी को इकट्ठा कर रखते हैं और मिट्‌टी का कटाव बचाते हैं। इन दिनों पेड़ और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे हर वक्त खबरों में रहते हैं। शहरी भारत की नई पीढ़ी को यह एहसास होने लगा है कि पेड़ उनके स्वास्थ्य और भविष्य के लिए कितने अहम हैं। शायद एक नई ‘चिपको पीढ़ी’ तैयार हो रही है। हाल ही में मुंबई के आरे मिल्क कॉलोनी में पेड़ काटने के विरोध में युवा सड़कों पर उतरे। वह पेड़ जो शायद उस शहर में साफ हवा की आखिरी उम्मीद में से एक हैं। उस शहर की, जिसने पिछले 20 सालों की सबसे खराब एयर क्वालिटी 2018 में झेली है। यह विरोध सालों से चल रहा है। मुझे भरोसा है कि ये लोग जो खुद मेट्रो से चलते हैं, शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर की अहमियत समझते हैं, जिसके लिए ये पेड़ काटे जाने हैं। फिर भी, दुनियाभर के युवाओं की तरह ये युवा भी बड़ों से पर्यावरण और विकास के बीच सामंजस्य बैठाने की गुहार लगा रहे हैं। हम जानते हैं कि रियल एस्टेट और मेट्रो के लिए शेड बनाने की कीमत क्या होती है। लेकिन हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं जिससे एक तंदरुस्त जंगल का मूल्य पता कर सकें। जंगल या पेड़ों को मिनटों में काटा या जलाया जा सकता है, लेकिन उन्हें उगने में कई दशक लग जाते हैं। और लोगों को इसकी असल कीमत वायु प्रदूषण, बढ़ते तापमान जैसी दिक्कतों का सामना कर चुकानी होती है। खासकर मुंबई जैसे तटवर्ती शहरों में पेड़, वेटलैंड्स और मैंग्रोव बाढ़ से जुड़े खतरों से बचाते हैं। इसलिए यह अच्छा साइंस और कॉमनसेंस है कि हम ज्यादा से ज्यादा पेड़ों को बचाएं। क्योंकि हर पेड़ न बचाया जा सकता है न ही बचाया जाना चाहिए।

मुझे हाल में अपने बगीचे में कई पौधे लगाने का मौका मिला। अपने हाथों से पौधा रोपने से जो संतुष्टि मिलती है उसे व्यक्त करना मुश्किल है। और उसकी देखभाल करना तब तक, जब तक वह मजबूत पेड़ न बन जाए ऐसी खुशी देता है जिसे अनुभव ही किया जा सकता है। वास्तव में पेड़ थैरेपी भी दे सकते हैं। जापानी लोग “जंगल स्नान’ करते हैं, जिसे वे शिनरिन-योकू कहते हैं। रिसर्च के मुताबिक इस स्नान से रोग-प्रतिरोधक क्षमता मजबूत और तनाव कम होता है। उनका सुझाव है कि पांचों इद्रियों के साथ महसूस करते हुए जंगल में चलना-बैठना चाहिए। कंक्रीट के जंगलों में रहने को मजबूर दुनियाभर के लोग इसे अपना रहे हैं। पड़ोस का पार्क भी यह उद्देश्य पूरा कर सकता है। वैज्ञानिक पिछले कुुछ सालों में पेड़ों के बारे में बहुत कुछ सीख रहे हैं। नई रोचक रिसर्च से कुछ जानकारियां मिली हैं जिसे अब वुड वाइड वेब कहा जाता है। जिस तरह वर्ल्ड वाइड वेब दुनियाभर के लोगों को जानकारियां साझा करने का जरिया देता है, वैसे ही पेड़ों का अपना जटिल कम्युनिकेशन सिस्टम है, वह भी 4.5 करोड़ साल पुराना। जाहिर तौर पर हम इंसानों के नर्वस सिस्टम की तरह पेड़ों का भी ऐसा कुछ होता है जिसकी मदद से वे एक दूसरे से बात कर सकते हैं, सीख सकते हैं और याद भी रख सकते हैं। पेड़ बैक्टीरिया और फंगस के सहजीवी सिस्टम का इस्तेमाल कर एक दूसरे को खाना और ज्ञान देते हैं। पेड़ों की जड़ों पर मौजूद फंगस उनसे शक्कर लेती हैं और बदले में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के रूप में पोषण देती हैं। पेड़ फंगस के माइकोरिजल नेटवर्क का इस्तेमाल दूसरे जरूरतमंद पेड़ों को खाना देने के लिए करते हैं। वह केमिकल सिग्नल के जरिए शिकारी या आक्रामक प्रजातियों से खतरे की चेतावनी भी भेजते हैं। ताकि वह पेड़ खतरनाक हार्मोन्स या केमिकल्स पैदा कर खतरे से खुद को बचा सकें। जंगल में अचानक आई विपदा जैसे कि वनों की कटाई के वक्त, पेड़ एक दूसरे को तनाव के संकेत भी भेज सकते हैं।

फंगस के जरिए तैयार यह कम्युनिकेशन नेटवर्क जंगल के सिस्टम को तंदरुस्त रखता है। कुछ एक फंगस और पेड़ों के बीच खास रिश्ता होता है। इसलिए ज्यादातर संवाद एक जैसी प्रजाति के बीच होते हैं। इसके बावजूद वह दूसरी प्रजाति के पेड़ों से भी बात कर सकते हैं। रिसर्च में पता चला है कि अलग-अलग प्रजातियों के बीच संवाद से पेड़ों को स्वस्थ और लचीला रहने में मदद मिलती है। शहरों में पेड़ ज्यादातर अकेले रहते हैं। कंक्रीट ढांचों के बीच वह दूसरे पेड़ों से संवाद नहीं कर पाते और उनके फंगल नेटवर्क को भी नुकसान पहुंचता है। जिससे उनकी उम्र और जीवन शक्ति कम हो जाती है। पेड़ उगाने के अभियानों में शामिल शहरी लोगों के लिए यह समझना और याद रखना बेहद जरूरी है। वह एक प्रजाति के पेड़ों को समूह में लगाएं और उनके बीच की मिट्‌टी को अतिक्रमण से मुक्त रखें।

हमारे भाग्य को पेड़ों से अलग नहीं किया जा सकता। उन्हें जीने के लिए जरूरत है स्वस्थ इकोसिस्टम की और हमें जिंदा रहने के लिए दरकार है स्वस्थ पेड़ों की। वह ऑक्सीजन देते हैं, कॉर्बन सोख लेते हैं, मिट्‌टी का कटाव रोक, पानी सहेजते हैं। इन सब जगजाहिर जानकारियों के अलावा हमें अब ये भी पता चला है कि पेड़ों को फंगल नेटवर्क की जरूरत होती है इसलिए मनुष्य को भी है। इसलिए हमें पेड़ों की जड़ों पर रहनेवाले विविध जीवों को बचाना होगा। यह जानकारी हमारे लिए कवच सी है। क्योंकि नई पीढ़ी ने बीड़ा उठाया है खुद को सेहतबख्श कर प्राकृतिक दुनिया को सेहतबख्श करने के चुनौतीपूर्ण काम का। यह शुरुआत है भारत में लंबे त्योहारों वाले मौसम की। कोई भी त्योहार पेड़ों से मिले उत्पादों के बिना अधूरा है। आम के पत्ते, नारियल, फूल, फल या सोने की पत्ती के नाम से महाराष्ट्र में दशहरे पर बांटी जानेवाली पत्तियां। क्यों न इस साल देवी देवताओं को नमन करते हुए या फिर परिवार के साथ उत्सव मनाते हम कुछ वक्त माइकोरिजल नेटवर्क के बारे में सोचें। उस जीव के बारे में जो पेड़ों की जड़ों पर मौजूद है। आखिरकार, त्योहार और दस्तूर बने ही हैं हमारी पवित्र भावना को तरोताजा करने और धरती पर जीवन के इस जटिल जाल से अपने गहरे संबंधों को दोबारा जोड़ने के लिए।

WestBridge Capital and Rohini Nilekani Philanthropies in research centre tie-up

Private equity firm WestBridge Capital and Rohini Nilekani Philanthropies have jointly committed Rs 5.5 crore to set up two new centres at the Bengaluru-based research institution, Ashoka Trust for Research in Ecology and the Environment (ATREE).

The two will engage with policy leaders on issues such as climate change and look at using the research grant to offer sustainable business opportunities for local communities.

The Centre for Policy Design and Centre for Social and Environmental Innovation — to be set up at ATREE’s campus — will focus on research and formulation of sustainable and scalable policies to address socio-environmental problems. They are expected to tackle critical problems such as invasive species, climate management, and food systems.

“We need to do more research and also create an environment where the research leads to better policy making,” Rohini Nilekani, who is also a board member of ATREE, said. ATREE is among India’s few environmental organisations that do research over long periods to understand the impact of shifts in environment, which is valuable when faced with climate change, she said. Sandeep Singhal, MD of WestBridge Capital, said the growing conversation about climate change triggered the grant to promote environment related issues.

“The situation is like everyone’s house is on fire,” Singhal said. “(Influencing) policies take time, it requires investment”. ATREE, besides providing policy inputs to tackle environmental degradation, is also looking to provide sustainable income for local communities living near forests. It also has set up programmes to commercially exploit invading species such as Lantana in Biligiriranga hills in Karnataka.

“With biodiversity, water and climate change being our focus areas, we intend to look at issues from an interdisciplinary standpoint and to put the research to use to address real world problems. In fact, the Westbridge and Rohini’s initiative to fund the project has triggered interest among other funders too, with whom we are seeing potential participation in future,” Nitin Pandit, director of ATREE, said.

अब वक्त हो चला है “बॉडी इंटेलिजेंस’ बढ़ाने का

चुनौती… देश को स्वस्थ बनाने के लिए हर एक को जागरूक होना होगा, सरकार सभी को स्वस्थ नहीं रख सकती

पतंजलि योगसूत्र का एक सुंदर कथन है ‘हेयं दुखम् अनागतम’, अर्थात दुख आने से पहले ही उसे रोक देना चाहिए। शायद इसी से प्रेरित होकर आधुनिक योग के प्रणेता गुरुजी बी के एस आयंगर ने कहा होगा कि शरीर मेरा मंदिर है और आसन मेरी प्रार्थना। आखिरकार हमारा शरीर ही हमारी असली पूंजी है, जो ताउम्र हमारे साथ रहती है। हालांकि देश का स्वास्थ्य उतना दुरुस्त नहीं है। डब्ल्यू एच ओ के मुताबिक भारत में औसत उम्र 68.8 वर्ष है जो हमें 195 देशों की सूची में 125 नंबर पर रखती है। उदाहरण के लिए गैर संक्रामक रोगों का प्रतिशत भारत में होने वाली बीमारियों में बढ़ता जा रहा है। देश में डायबिटीज के 5 करोड़ रोगी हैं, जिनकी संख्या 2030 तक 8 करोड़ के चिंताजनक आंकड़े को पार कर जाएगी। सभी जानते हैं कि ये जीवनपर्यंत बनी रहती है और अपने साथ गुर्दे, धमनियों, आंखों और ह्रदय संबंधित रोग लेकर आती है। विशेषज्ञों का मानना है कि सही दिनचर्या, व्यायाम और खानपान के जरिये इससे बचा जा सकता है या कम से कम इस पर काबू रखा जा सकता है। दुर्भाग्यवश सही खानपान और व्यायाम उतना आम नहीं है, जितना होना चाहिए। खास तौर पर शहरी इलाकों में व्यायाम के लिए समय निकालना और जगह मिलना मुश्किल है। सही खानपान भी उतना आसान या फिर किफायती नहीं होता। ताजे और सुरक्षित फल-सब्जियां या प्रोटीन काफी महंगे हैं। और शकर-वसा से भरपूर गैर पौष्टिक खाना मिलना ज्यादा आसान भी है।

देखा जाए तो इन दिनों एलीट क्लास के पास ही स्वास्थ्य चुनने की लग्जरी बाकी है। ये पुराने जमाने से बिल्कुल अलग है जब अमीरों के शौक में चर्बी और मीठा खाना शामिल था और वे लोग मोटापे को गर्व के साथ स्वीकार करते थे। आज जो सुपर रिच हैं वे अपने स्वास्थ्य से जुड़े मसलों को लेकर बेहद सचेत हैं। कई अपनी फिटनेस को उतनी ही तवज्जो देते हैं जितनी अपनी संपत्ति को। इस हद तक कि उनके लिए एक्सरसाइज और खानपान का ध्यान रखना सनक बन जाता है। इसी बीच, लाइफस्टाइल से जुड़ी बीमारियां तेजी से समाज की आर्थिक सीढ़ी में नीचे की ओर खिसक रही हैं। दिल और फेफड़े से जुड़ी बीमारियां डायबिटीज के साथ मिलकर हर साल भारत में 40 लाख लोगों की जान ले लेती हैं। दुखद है कि ये असामयिक मौतें 30-70 वर्ष के लोगों की होती हैं। क्योंकि गैर संक्रामक रोगों ने हमारे देश में ज्यादातर देशों से एक दशक पहले घुसपैठ कर ली है। इनमें से कई स्वास्थ्य संबंधी मसलों की रोकधाम संभव हैं जिसके लिए जागरूकता ही उपाय है। भारत भाग्यवादी संस्कृति को मानने वाला देश है। कई बार हम अपने शरीर की नियति को अलग-अलग भगवानों के भरोसे छोड़ देते हैं। भारत में कई लोग डॉक्टर और अस्पताल से दूर रहते हैं। यह तब तक चल रहा था जब प्राकृतिक उपचार की संस्कृति जीवित थी। आज स्थानीय स्वास्थ्य जानकारियों की व्यवस्था विलुप्त होती जा रही हैं। मेरी नानी जिन पौधों से घरेलू नुस्खे तैयार करती थीं ऐसे 5% पौधों को भी मैं नहीं पहचानती। जंगल और आदिवासी इलाकों में भी मैंने ऐसे युवा देखे हैं जो उन जड़ी, बूटियों को नहीं पहचानते जिनसे उनके पुरखे दवाइयां तैयार कर बीमारियां दूर कर देते थे।
बल्कि, अब मुझे लगता है कि हम अपने स्वास्थ्य को सरकार या फिर कई बार बाजार के हवाले कर देते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि सरकारी अस्पताल या फिर प्राइवेट डॉक्टर हमारी छोटी से छोटी बीमारी के लिए मौजूद रहंे। कितने ऐसे लोगों को हम जानते हैं जो बुखार या खांसी का पहला लक्षण नजर आते ही क्लीनिक या फिर फॉर्मेसी की दुकान को दौड़ पड़ते हैं? फिर मरीजों की लंबी लाइनों से थके डॉक्टर भी यूं ही कोई लक्षणसूचक राहत सुझा देते हैं। कई मरीजों को ये भी नहीं मालूम होता कि उन्हें क्या दवाई दी गई है। हम बेइंतहा भरोसा करते हैं या फिर शरीर से अजीबोगरीब अनासक्ति रखते हैं। फिजिशियन का लिखा लोग बड़े आज्ञाकारी ढंग से खरीदते भी हैं और गटक भी लेते हैं। और इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि उन्हें आराम भी मिल जाता है। पर जरूरत ये है कि हम जो दवाई अपने शरीर में डाल रहे हैं इसे लेकर हम चिंता करें और थोड़े जिज्ञासु भी बनें। शायद समय आ गया है “बॉडी इंटेलिजेंस’ बढ़ाने का। आखिरकार स्वास्थ्य नागरिकों से जुड़ा मसला है और समाज का मुद्दा भी। एंटी-बायोटिक्स प्रतिरोध इस बात का बेहतरीन उदाहरण है। जब हम एंटी-बायोटिक्स का कोर्स पूरा नहीं करते तो हम बैक्टीरिया को लेकर प्रतिरोध खड़ा करने के जिम्मेदार होतेे हैं और फिर यह सामाजिक मसला बन जाता है। आजकल हमारी हवा, पानी और मिट्‌टी में मौजूद ड्रग प्रतिरोध वाले बैक्टीरिया भी बढ़ते जा रहे हैं। गंभीर बात यह है कि बाजार में नए एंटी-बायोटिक्स की खोज धीमी हो गई है। हम जल्दी ही एंटी-बायोटिक की खोज के पहले वाले काल में पहुंचने वाले हैं। इससे बेहतर समय और क्या होगा जब हम अपनी बीमारियों और उनके इलाज को लेकर ज्यादा से ज्यादा जान लें। हमारी उंगलियों की पहुंच में अब हर तरह का मुफ्त मेडिकल नॉलेज है। बाजार में अपनी बीमारी का पता लगाने के लिए बहुत सी डिजिटल सुविधाएं आ रही हैं। 10-19 साल के बीच के 2.5 करोड़ भारतीय किशोर तकनीक खासकर
मोबाइल फोन को लेकर सहज हैं, उनके लिए स्वास्थ्य से जुड़ी चीजों को अपना लेना आसान होगा।

वयस्कों में 33% बीमारियां और 60% असामयिक मौतों का संबंध किशोरावस्था के उनके व्यवहार और स्थितियों से संबंधित होता हैं। यदि भारत में किशोरों के स्वास्थ्य में सुधार लाया जाए तो यह युवाओं को लिए खुद ब खुद अच्छा होगा। यह देश को स्वस्थ और बेहतर कामकाजी जनसंख्या भी देगा। क्योंकि भले हम आज युवा देश हैं लेकिन 2050 तक हमारी 20% जनसंख्या 60 वर्ष के पार वालों की होगी। आखिर सरकार क्या कर सकती है उसकी एक सीमा है। आम बजट में इस साल सबसे ज्यादा हिस्सा मिलने के बावजूद यह कभी भी सभी को स्वास्थ्य नहीं दे सकता। तब तक नहीं जब तक नागरिक खुद अपने स्वास्थ्य को लेकर जागरुक न हों। इसलिए हमें गुरुजी की बात याद रखनी होगी। हमें सीखना होगा अपने शरीर से मंदिर जैसा व्यवहार करना होगा और अपने खानपान, व्यायाम के जरिए शरीर की प्रार्थना करनी होगी।

सजा बदला लेने को नहीं, सुधार के लिए दी जाए

जरूरत… सभी नागरिक उस सिस्टम को समझें जो अपराध और सजा को लेकर कानून स्थापित करता है

पिछले साल विजय माल्या के वकील ने इंग्लैंड की सरकार से आर्थर रोड जेल की भयावह स्थिति पर विचार करने को कहा था। वकील ने उस नियम का हवाला दिया था, जिसमें प्रत्यर्पित किए जाने वाले व्यक्ति के मानवाधिकारों का आकलन करना होता है। हाल ही में पुणे की यरवदा जेल में फैसले का इंतजार कर रहे वरवर राव की पत्नी ने महाराष्ट्र के राज्यपाल से जेल की भयानक परिस्थितियों की सुध लेने की गुहार लगाई थी। ये दो हाई प्रोफाइल केस हैं। एक बिज़नेसमैन और दूसरा क्रांतिकारी लेखक। ये केस मुझे 1982 के एक ऐसे ही मामले की याद दिलाते हैं। अमेरिका में बतौर युवा पत्रकार मैं एक ताकतवर राजनेता के बेटे आदिल शहरयार का इंटरव्यू लेने गई थी। जिन्हें आगजनी के लिए मियामी के हाई सिक्योरिटी जेल में बंद किया गया था। जेल की सुविधाओं को देखकर मैं हैरान थी। साफ-सुथरे बड़े से उस जेल में खेलकूद और मनोरंजन की सुविधाएं तक थीं। मुझे याद है आदिल ने हंसते हुए कहा था, “यह जेल नहीं कंट्री क्लब है!’ इन्हीं कड़ियों को जोड़कर मैं भारतीय जेलों की स्थिति के बारे में सोच रही हूं, जिन्हें लेकर कई भयानक रिपोर्ट्स हैं। वहां जाए बिना भी हम सब जानते हैं कि पिंजड़े जैसे ये जेल अपनी क्षमता से ज्यादा कैदियों को ढो रहे हैं। वहां कैदियों को न साफ-सफाई मिलती है, न ही सोने लायक बिस्तर। कैद में उनके साथ हिंसा होती है, यहां तक कि दुष्कर्म भी। ये एेसे निष्ठुर हालात हैं, जिनसे भारत में कैदी और विचाराधीन दोनों का सामना होता है। सच तो यह है कि हमारी जेलों के बंदियों में अधिकांश यही विचाराधीन होते हैं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया है, लेकिन अपराध साबित नहीं हुआ। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो 2016 के मुताबिक 1400 जेलों में बंद 4.33 लाख बंदियों में से 67% से ज्यादा विचाराधीन हैं। कई बंदियों को जितने दिन जेल में रहना पड़ता है, यदि उनका जुर्म साबित भी हो जाता, तब भी उन्हें इससे कम दिन सजा काटनी पड़ती। जेलों की भीड़ कम करने की जद्दोजहद और बेगुनाह विचाराधीन कैदियों की रिहाई के बाद भी यह अन्याय अनवरत जारी है।

क्या ये बातें हम आम नागरिकों को किसी भी तरह से परेशान करती है? आखिरकार हम सभी हर दम कोशिश करते हैं कि नियम-कायदों का पालन करें। कम से कम उन नियमों का, जो हमें पता हैं। क्योंकि हमें या हमारे पहचान वाले को तो संभवत: कभी जेल होने ही नहीं वाली। शायद इस पर दोबारा सोचना होगा। भारत का न्यायिक ढांचा और उसके कानून अभी भी विकसित हो रहे हंै। हमारे कई कानून औपनिवेशिक काल के हैं और अभी भी सुधरने का इंतजार कर रहे हैं। उदाहरण के लिए 1894 कैदी अधिनियम। कई कानून सिर्फ शक के आधार पर, बिना जमानत गिरफ्तारी की अनुमति देते हंै। दहेज के मामले, सेंधमारी, आत्महत्या के लिए उकसाने, आईपीसी की धारा 399 या 402 जैसे किसी मामले में आरोप लगने पर किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। किसी को 1860 के महात्मा गांधी जैसे देशभक्तों के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए कानून के तहत देशद्रोह के मामले में भी गिरफ्तार किया जा सकता है। आज़ादी के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस कानून को हटाने की कवायद नहीं की। 2014 से 2016 के बीच 179 लोगों को देशद्रोह के 112 मामलों में गिरफ्तार किया गया, जबकि केवल 2 केस में दोष साबित हुआ। कई बार युवा सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए अलग-अलग कानून के अंतर्गत फंस सकते हैं। 2017-18 में देशभर में 50 लोगों को सोशल मीडिया पोस्ट के कारण गिरफ्तार किया गया। इनमें से कई ने छह महीने जेल में बिताए, कुछ एक महीने कैद रहे, जबकि बाकी को हफ्तेभर में रिहा कर दिया गया, यह सोचने वाली बात है।

आज नई तकनीक, जैसे कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, फेस रिकग्निशन का इस्तेमाल पुलिस अपराधियों को पकड़ने के लिए करने जा रही है। जो अब भी पूरी तरह विकसित नहीं है, जिसके चलते गलत लोगों की गिरफ्तारी भी हो सकती है। तो इस अकल्पनीय पर भी विचार कीजिए। सोचिए, कोई बेगुनाह नागरिक, जो आप और हम खुद को समझते हैं, जिन्हें हम सुरक्षित मानते हैं, शायद सुरक्षित नहीं हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सभी नागरिक उस सिस्टम को समझें जो अपराध और सजा को लेकर कानून बनाता है। हमारे नए सांसदों की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह नए कानून लिखें और पुरानों को संशोधित करते रहें। बतौर नागरिक हमें, उन्हें इसी के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए, क्योंकि अच्छे कानून इंजन की तरह हंै, जिनकी बदौलत समाज आसान और सुलभ तरीके से चलता है। आखिर इस बेतरतीब सिस्टम में यदि हमें गैरकानूनी तौर पर जेल हो जाती है, क्या तभी हमें जेलों की स्थितियों पर चिंता होगी? इसी संदर्भ में खुली जेलों के रूप में एक बेहद रोचक प्रयोग देश में चल रहा है, जिसमें राजस्थान अग्रणी है। वहां 1963 से सांगानेर में एक खुली जेल है, जहां अभी भी 400 कैदी रहते हैं। भारत में 63 खुली जेलें हैं, जबकि 30 अकेले राजस्थान में। इन खुली जेलों में दीवारें, सलाखें और ताले नहीं होते। वो कैदी जो कुछ कड़ी शर्तंे पूरी करते हैं उन्हें यहां रखा जा सकता है। उन्हें बस दिन में दो बार हाजिरी देनी होती है। उन्हें आजादी का इस्तेमाल रोजगार के लिए करना होता है। कैदियों के साथ उनके परिजन भी यहां रह सकते हैं। खुली जेल सफलता की कहानी है। वहां मानव गरिमा को जगह दी जाती है। यहां दोबारा गुनाह होने की आशंका 1% है। अब बाकी राज्य भी ऐसी जेल चाहते हैं।

स्मिता चक्रवर्ती 15 सालों से खुली जेलों पर काम कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उनके सुझावों पर हर जिले में खुली जेल बनाने को कहा है। यह एक अच्छी खबर है। दुनिया के महान विचारक सदियों से कहते आए हैं, कि किसी अपराध की सजा बदला लेने के लिए नहीं बल्कि पुनर्वास के लिए होनी चाहिए। गांधी ने भी कहा है, अपराध से घृणा कीजिए, अपराधी से नहीं। यदि सिस्टम द्वारा हिंसा का जवाब हिंसा से दिया जाएगा तो यह कभी खत्म नहीं होगी। यूं भी कोई अपराधी बनकर तो पैदा नहीं होता। न्याय को केवल पीड़ित के लिए नहीं बल्कि अपराधी के लिए भी काम करना होगा। हम आप सभी को इस पर सोचना होगा। न्याय बेहद जरूरी विषय है जिसे सिर्फ सरकार और कोर्ट पर छोड़ देना समाज के लिए हितकारी नहीं होगा।

 

पानी की समस्या के समाधान को समाज दिखाए राह

जिम्मेदारी… पुरानी परंपराओं और नए विचारों का उपयोग कर, सरल तरीकों से पानी का संरक्षण कर सकते हैं

अमेरिका में एक पर्यावरण एनजीओ सिएरा क्लब के संस्थापक जॉन मुइर ने कहा था कि जब हम किसी चीज को दुनिया से अलग करने की कोशिश करते हैं, तो पता चलता है कि वह किसी न किसी रूप में दुनिया की बाकी सभी चीजों से जुड़ा हुआ है। अगर हम पानी की बात करें तो यह भी कुछ ऐसा ही है। जिस भी पानी को हम छूतेे हैं, जो भी पानी हम उपयोग करते हैं, वह संसार में मौजूद हर तरह के पानी से जुड़ा होता है। चूंकि पानी ग्रह पर खुद को रीसाइकल करता रहता है, इसलिए हम वही पानी पी रहे हैं जो लाखों साल पहले डायनासोर पिया करते थे। पानी न घटता है, न बढ़ता है, बस रूप बदलता रहता है।

हम मानसून का उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं, उसे ट्रैक करते हैं, क्योंकि यह हर साल कई तरीकों से हमारे भाग्य का फैसला करता है। भारत में जल संकट अब हमारे भविष्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक बन चुका है। हालांकि दूसरे देशों की तुलना में भारत एक जल समृद्ध देश है। हमारे यहां औसतन हर साल 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर के करीब बारिश होती है। लेकिन एक समस्या यह है कि इसका आधे से कम इस्तेमाल लायक होता है। बाकी हिमालय में बर्फ के रूप में रहता है, या फिर जमीन की गहराई में चला जाता है। दूसरी बात यह है कि हमारी आबादी पिछले 70 वर्षों में 30 करोड़ से बढ़कर 130 करोड़ हो गई है, इसलिए प्रति व्यक्ति का पानी का हिस्सा कम हो गया है। पैमाने के हिसाब से आबादी पानी की कमी का अनुभव तब करती है जब आपूर्ति प्रति व्यक्ति 1000 क्यूबिक मीटर से कम हो जाए। हम जल्द ही यहां तक पहुंच जाएंगे, जबकि कई जिलों में पहले से ही पानी की यह स्थिति बन चुकी है। लेकिन भविष्य उतना डरावना नहीं होना चाहिए। सच तो यह है कि हमारी बहुत सी समस्याएं जल संसाधनों की बेतरतीब शासन प्रणाली की वजह से ही हैं। और हम यह बदल सकते हैं।

हम सब जानते हैं कि प्रमुख मुद्दे कृषि नीति से जुड़े हैं। उपलब्ध पानी का करीब 80% से अधिक भोजन और गैर-खाद्य फसल उत्पादन में जाता है, लेकिन हमारी उत्पादकता पानी की प्रति बूंद के हिसाब से कम है। हमें कम जमीन का इस्तेमाल करते हुए पानी की हर बूंद से और ज्यादा फसल उगाने की आवश्यकता है। सिर्फ तीन फसलें, चावल, गेहूं और गन्ना अत्यधिक पानी खींचते हैं। अगर हम खाद्य सुरक्षा से समझौता किए बिना इस मुद्दे को हल करें, तो लोगों के रोजमर्रा के इस्तेमाल, शहरीकरण के लिए, उद्योग और ऊर्जा उत्पादन के लिए बहुत अधिक पानी बचेगा। आम जनता सोचती होगी कि इससे हमारा क्या लेनादेना? यह मामला तो राजनेता, सरकारी अधिकारी और सेक्टर के विशेषज्ञ ही संभाल सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद हम नागरिक अपनी ओर से पानी बचाने का प्रयत्न करते रहते हैं। हम पुरानी परंपराओं और नए विचारों का उपयोग करते हुए, सरल तरीके से पानी का संरक्षण कर रहे हैं। हम नहाते वक्त या घर में साफ-सफाई के दौरान पानी बचाने की कोशिश करतेे हैं। आजकल हमने बोतलबंद पानी का उपयोग करने से पहले भी दो बार सोचना शुरू कर दिया है। एेसी हर पहल महत्वपूर्ण है। खासकर, एक ऐसे देश में जो अमीर होता जा रहा है और अधिक खपत कर रहा है। ऐसे में हम अपनी सावधान रहने वाली सांस्कृतिक नैतिकता को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते। पुराने मूल्यों को सराहा और संरक्षित किया जाना चाहिए, लेकिन उन्हें और भी नए क्षेत्रों में विस्तारित करने का समय आ गया है। यदि चावल, गेहूं और गन्ना ऐसी फसलें हैं जो अधिकतम पानी लेती हैं, तो हम एक संतुलन को बहाल करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर क्या कर सकते हैं?

पारंपरिक तौर पर जो हमारा खानपान रहा है नए शोध भी उसे सही ठहरा रहे हैं। जैसे प्रोसेस्ड चावल की तुलना में ज्वार-बाजरा ज्यादा बेहतर होता है और कुछ लोगों को गेहूं हजम नहीं होता। जबकि चीनी को तो अब जहर के समान ही माना जाता है। ये अच्छा संयोग है कि हमारे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद फसलें कम पानी में तैयार हो सकती हैं। जो लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेत हैं, वे तीन सफेद चीज, चावल, मैदा और चीनी से पूरी तरह से बचते हैं। उच्च रक्तचाप, मधुमेह और मोटापे जैसी कई बीमारियां इन खाद्य पदार्थों के ज्यादा इस्तेमाल करने से जुड़ी हुई हैं। फिर भी हमारी सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से इन तीनों वस्तुओं को अत्यधिक रियायती मूल्य पर बेचती आ रही है। जिन लोगों को राशन का मासिक बजट बहुत सावधानीपूर्वक खर्च करना होता है उनके पास इन चीजों को खरीदने और इनका उपयोग करने के अलावा बहुत कम विकल्प होते हैं। यह गरीबों के साथ बहुत नाइंसाफी है और इसे बदलना ही होगा। कर्नाटक जैसे राज्य राशन की दुकानों में इन अनाजों के साथ-साथ रागी और कांगनी उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश को और आगे तक ले जाने की जरूरत है, लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी और पानी की भारी बचत के लिए भी। कई परिवार पहले से ही ऐसा करने लगे हैं। रागी, ज्वार और बाजरा से स्वादिष्ट खाना पकाने के लिए प्रतियोगिताएं भी होती हैं जो युवाओं को आकर्षित कर रही हैं। आजकल माएं चाहती हैं कि स्थानीय, मौसमी उत्पाद और सब्जियां सुरक्षित रूप से उगाई जाएं और वे हार्मोन और कीटनाशक मुक्त दूध का उपयोग कर सकें।

जब हम फूड स्मार्ट होते हैं, तो हम अक्सर वॉटर स्मार्ट भी होते हैं। हां, हम सभी कभी-कभार पिज्जा, समोसा और फ़िज़ी ड्रिंक पसंद करते हैं, लेकिन मध्यम वर्ग ने थोड़ा बदलाव करना शुरू कर दिया है। लाखों लोगों द्वारा किए गए छोटे परिवर्तन मिलजुलकर बहुत बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं। कौन जाने कृषि नीति को राजनेता और अधिकारियों के एक्शन के लिए कितना इंतजार करना होगा। तब तक हम खुद भी कुछ कर सकते हैं। यही सही वक्त है। खुद को सुरक्षित और पर्याप्त पानी मुहैया कराने की जिम्मेदारी लेने का।
जैसा मुईर ने कहा था, हर कुछ, सबकुछ से जुड़ा हुआ है। हमारी व्यक्तिगत जीवन शैली और भोजन के विकल्प जल संकट पर व्यापक रूप से प्रभाव डाल सकते हैं। कभी-कभी हम नागरिकों को पहल करनी होती है, रास्ता दिखाना होता है। और फिर कई बार सरकार और बाजार को भी इसी रास्ते पर चलना पड़ता है।

अरबपतियों से भी ज्यादा दान देते हैं आम लोग

हमारे जीवन के कई सपने होते हैं जो हमारे परिवार, बच्चों और उनके भविष्य से जुड़े होते हैं। जीवन की हर प्राप्ति हमें कहीं न कहीं संतुष्टि और खुशी अवश्य देती है। लेकिन आज के समाज में मैं देखती हूॅं कि जीवन में उन सभी आशाओं को पुरा-पुरा करते कहीं न कहीं हमारी खुशी गुम होती जा रही है। आखिर वो कौन से कारण है जो हमारी खुशी को हमसे दूर कर देते हैं और पारिवारिक सम्बन्धों में दूरियां ला देती है। अगर हम सारे दिन की दिनचर्या पर ध्यान दे तो हमें यही लगता है कि यह परिस्थितियों की एक श्रृंखला है जो लगातार फिल्म की तरह चलता ही रहता है। कोई पल हमें खुशी देता है तो कोई पल हमें उदास भी कर देता है। अर्थात हमारे मन मुताबिक कोई कार्य करता है तो इससे मुझे खुशी मिलती है। इसका मुख्य कारण यही है कि हमारा वर्तमान जीवन व्यक्ति और लोगों के ऊपर निर्भर कर रही है। सुबह का एक सीन आया कि बच्चे स्कूल जाने के लिए समय पर तैयार तो हो गए लेकिन उनको लेने के लिए बस नहीं आयी तो मुझे गाड़ी निकालने के लिए जल्दी-जल्दी जाना पड़ा। पहले वाले सीन में खुशी थी लेकिन दूसरे सीन खुशी गुम हो गई। फिर अगला सीन आता है स्कूल समय पर तो पहुंच गए, फिर याद आया कि बच्चे ने जो होमवर्क किया था वो नोट बुक तो घर पर ही रह गई। ये सारे ऐसे सीन हैं जो हमारे मानसिक संतुलन पर प्रभाव डालते हैं। क्योंकि मैंने अपने मन का कंट्रोल पूरी तरह से परिस्थितियों के ऊपर दे दिया और मैंने सोचा कि ये तो नॉर्मल है ऐसा चलता ही है। फिर धीरे-धीरे दिन प्रतिदिन जीवन की चुनौतियां बढ़ती गई जिसके कारण हमारे जीवन में परेशानी बढऩे लगी। फिर हमने अपने जीवन को देखना शुरू किया हमारा जीवन कहां है। तब मैं अपने आपसे प्रश्न पूछती हूॅं कि सब कुछ तो है, एक अच्छा पति, एक अच्छी पत्नी, दोनों जॉब में हैं, अच्छा खासा मासिक वेतन घर आ रहा है, दो स्टोरी मकान बन चुकी है, बाहर दोनों के लिए अलग-अलग गाडिय़ां हैं, बच्चों के लिए भी सबकुछ है, फिर हम खुश क्यों नहीं है सब कुछ होते हुए भी अंदर खालीपन क्यों महसूस हो रहा है।

हम सभी को यह मालूम है कि हमारा जीवन चार दिनों का नहीं है। यह तो एक लम्बी यात्रा है जिसमें स्वाथ्य रहना बहुत ही आवश्यक है। इस यात्रा में जीवित रहने और शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए भोजन बहुत ही जरूरी है। यदि हमारा स्वास्थ्य अच्छा होगा तभी हम ठीक तरह से काम कर पायेंगे। लेकिन कहीं न कहीं हमने इमोशनल हेल्थ और शारीरिक हेल्थ को अलग-अलग कर दिया है। अगर उसको भी हम जीवन में उतनी ही प्राथमिकता दे जितना शरीर के स्वास्थ्य को देते हैं तब हम जीवन की यात्रा में ठीक तरह से चल पायेंगे। अब पांच मिनट पहले हमें पता चला कि बच्चे को स्कूल छोडऩे जाना है। अगर उस समय मैं शांत रहूं, स्थिर रहूं, छोडऩे तो फिर भी आपको जाना ही है, गाड़ी तो आपको फिर भी चलानी ही है, लेकिन गाड़ी हम दुखी होकर चलायेंगे, मन में बहुत सारे विचार आयेंगे। अगर हम इमोशनल हेल्थ को भी उतना ही महत्व दें कि ये सब परिस्थितियां और हमारी भावनायें अलग-अलग नहीं है, यह तो एक पैकेज है। जो हमें परिस्थितियों के साथ मिलता है। यदि मैं इमोशनल रूप से स्वस्थ हूॅं तो मैं परिस्थितियों को बहुत ही सरलता से पार कर सकती हूॅं। लेकिन हम क्या करते हैं पहले परिस्थितियों का सामना करने लग जाते हैं फिर बाद में इमोशनल हेल्थ के बारे में सोचते हैं।

आज स्वास्थ के प्रति इतनी जागरूकता क्यों आयी है। इसके लिए हमें ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। हम सिर्फ एक पीढ़ी पीछे जाते हैं और सिर्फ अपने माता-पिता को देखते हैं। वे कभी भी पैदल करने नहीं गए, उन्होंने कभी मिनरल वाटर नहीं पिया, उस समय भोजन का इतना ध्यान नहीं रखा जाता था। हमलोगों के यहां साधारण भोजन बनता था और उसे ही हम सभी लोग आपस मिलकर खुशी-खुशी से खाते थे। लेकिन आज हमारी भावनाओं का दवाब शरीर के ऊपर इतना ज्यादा है कि कोई न कोई समस्या शरीर के साथ चलती ही रहती है। क्योंकि हमने आत्मा के स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखा जिसके कारण सारी समस्यायें आनी शुरू हो जाती है। अगर हम आत्मा के हेल्थ का ध्यान रखें तो मन पर जो इतना दबाव है उसके लिए आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। अगर आप दो-तीन लोग इक्_े जॉगिंग कर रहे हैं तो आप उस समय स्वयं के मन की स्थिति को चेक कीजिए कि मन में किस प्रकार के विचार आ रहे हैं। हम स्वस्थ रहने के लिए जॉगिंग कर रहे हैं लेकिन मन में नकारात्मक विचार आ रहे हैं। तो हमारे इन विचारों का प्रभाव मन के साथ-साथ पूरे शरीर पर पड़ता है। जब तक आप यह स्वयं अनुभव नहीं करेंगे कि हमारी भावनाओं का शारीरिक स्वास्थ पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है तब तक आप स्थिर नहीं रह सकते हैं।

The jewelled Aghanashini: It’s the last major free flowing river of peninsular India, don’t put the squeeze on it

For its entire 124 kilometres, this jewel of a river flows free. It is probably as old as the Western Ghats, older than the Himalayan range. Though not especially long, this west flowing river has a volume of water equal to the bigger Kali or Sharavathi rivers nearby. It originates in Shankara Honda in the town of Sirsi and meanders clean and clear through gorges, unique swamps, ancient forests and agricultural fields, till it flows to the Arabian Sea at Kumta, in Uttara Kannada district, Karnataka. Its forest floors are carpeted by bioluminescence, its estuary is rich with bivalves, crabs and mangroves harbouring dozens of varieties of fish.

Because of its gradient, it is the site of many spectacular waterfalls, like the Unchalli Falls, near which, on a full moon night in winter, you might even glimpse a moonbow – a rainbow generated from the moonlight. This is the river Aghanashini – ‘the cleanser of sins’.

This peninsular river is unique, because it is free flowing, unpolluted and retains its millennia old natural course. Most rivers in India are not free; they are dammed, or forced into channels. Others have just given up because their catchments have been destroyed; their drainage paths encroached upon. Most of our rivers do not even reach the sea anymore. Yet the hydrological cycle and the monsoon depends on rivers flowing to the ocean. A prevalent hydro schizophrenia refuses to acknowledge this reality, and we continue to build infrastructure along our rivers.

For the lakhs living along its banks, the Aghanashini has given people life and livelihoods. Even today, around 2 lakh households are directly dependent on the estuary, famed for its protein rich bivalve, crab and shrimp harvest. For the thousands of pilgrims that come to its many sacred spots, the river offers spiritual solace. For the growing number of tourists and researchers, the Aghanashini tract offers unique sights. Its sacred groves where trees have never been felled, its dense mangroves, its endangered lion-tailed macaque that came 5 million years ago, its tribal populations like the Halakkis that keep the Yakshagana art form alive; its appemidi wild mangoes that make the best pickles; its salt and pest resistant kagga rice – the list is endless.

Periodically, infrastructure is planned along this free flowing river of peninsular India. Once, industrial salt production was tried and abandoned. Then came a hydroelectric project, a thermal power plant, a port and a scheme to divert the river water for faraway towns.

People poured out in strong and sustained protests; people from every walk of life – ecologists, spiritual leaders, and fisher folk. The plans were shelved. The river ran free.
Now, a mega all weather port is once again imagined at its estuary, as part of Sagarmala. This port, which will expand the existing small Tadri port, will be built at an expense of about Rs 40,000 crore.

Karnataka already has 13 ports along its 300 km coastline, out of which one, Mangaluru, is a major port handling the bulk of shipments to and from the state. It is not clear on what basis the state expects Tadri port to be viable when nearby ports remain underutilised.

Just 25 km north is the Belekeri port, which was used to export iron ore and import coal before the industry collapsed. Just 25 km south is the Honnavar port, with a recorded maritime history going back centuries. Both these are well connected through the Konkan railway line and NH-17.

While it is unclear whether this port will ever be economically viable, environmental clearances have speeded up, with the usual contestations over what the reports left out in terms of the natural wealth of the region, and what would be lost through the creation of this port.

Meanwhile, the economic and future proofing opportunities created by the river and its catchments have not been properly documented. With its extreme natural beauty, just the potential of eco-tourism, if properly handled, could yield substantial revenue. The Western Ghats together with the sand and mangroves at the estuary are also effective carbon sinks. They provide untold ecosystem services in the region, including flood and erosion prevention.

If the port is built, it will require extensive dredging, as the current water depth is hardly two metres at the estuary. For ships to dock, it will have to be dredged up to almost 20 metres, releasing a vast amount of carbon rich soil and sand. Who will benefit? We often destroy ecology-based livelihoods in the name of employment creation. Who will be accountable when the marine production drops, as has been the experience at ports close by?

Economic discipline requires an ecological discipline as well. If we go ahead with each and every port designed for the Sagarmala project, we may create stranded assets and waste billions of dollars in underutilised infrastructure. Exactly the same result is visible in the Himalayas where dam after dam was built without making a holistic, scientific assessment of the total impact on the land and the economy.

In this great nation of saints and poets, public administrators and ingenious architects, has our national and local imagination shrunk so much that we cannot leave the last major free flowing river of peninsular India alone, for future generations to explore, enjoy and benefit from? Let the Aghanashini flow with Aviral, Nirmal Dhara.

हम अपने बच्चों को प्राकृतिक संपदा विरासत में दें

जिम्मेदारी… अगर बच्चा प्रकृति के साथ समय नहीं बिताता तो उसमें अवसाद की आशंकाएं बढ़ जाती हैं

माता-पिता के रूप में, जब हम अपनी विरासत के बारे में सोचते हैं कि हम अपने बच्चों के लिए क्या करेंगे तो अक्सर दिमाग में भौतिक धन जैसे कि गहने, घर, कार या फिर कैश का ख्याल आता है। लेकिन आने वाले कल को देखते हुए यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने बच्चों और पोते-पोतियों के लिए सिर्फ आर्थिक संपदा नहीं बल्कि जैविक संपदा भी विरासत के रूप में छोड़कर जाएं। जिस तरह हम अपने परिवार की संपत्ति की परवरिश करते हैं, क्या हम उसी तरह प्राकृतिक संपदा की परवरिश कर सकते हैं?

हम जब कमाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, अपनी बचत का निवेश करते हैं और उसे बढ़ता देखकर हमें गर्व महसूस होता है। तब हमारे पास आनंद लेने के लिए भी कुछ होता है और पीछे छोड़कर जाने के लिए भी। क्यों न हमारी परवरिश ऐसी हो कि हमें पेड़-पौधे और जानवरों की प्राकृतिक दुनिया को पुनर्स्थापित और विकसित करने में भी वही संतुष्टि मिले? मुझे जब भी मौका मिलता है मैं जंगलों में जाना पसंद करती हूं। जब मैंने पक्षियों से प्यार करना सीखा तब मैंनें पहले से ज्यादा खुश और शांत रहना भी सीखा। हमारे दिलों की गहराई और बायोलॉजी में प्रकृति और जीवित प्रणालियों के लिए लगाव होता है। जीव विज्ञानी ई.ओ विलसन ने इसे “बायोफीलिया’ बताया है। कुछ लोग कहते हैं कि बायोफीलिया मानव जाति के भविष्य की कुंजी है। यदि हम शहरों में रहते हैं, तो हमारा बायोफीलिया जताना मुश्किल होता है। शहरों में भीड़, कंक्रीट, कचरा और प्रदूषण हैं। झीलें और नदियां, नालियों में तब्दील हो गई हैं, हरे-भरे स्थान या तो घट रहे हैं या फिर दरवाजों के पीछे बंद हैं। लेकिन इस समृद्ध प्रकृति वाले देश में कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कहां रह रहे हैं, क्योंकि हम प्रकृति के उपहारों से ज्यादा दूर नहीं हैं। चाहे वह जंगल हो या घास का मैदान, रेगिस्तान हो या रेनफॉरेस्ट, या वेटलैंड। शहरी इलाकों में भी पार्क, तालाब और पेड़ हैं। सिर्फ एक बड़ा बरगद या पीपल का पेड़ एक मिनी इकोसिस्टम की तरह है, जो कई पक्षियों और छोटे जीवों की मेजबानी करता है। वातावरण को शीतल रख सकता है।

हम अपने बच्चों को बाहर ले जाकर जीवन के अलग-अलग रूप दिखा सकते हैं और बता सकते हैं कि ये सभी रूप किस तरह से पर्यावरण के अनुकूल ढल जाते हैं। शायद इससे आने वाली पीढ़ी को समझने, उससे प्यार करने और इको क्षेत्रों की सुरक्षा करने में मदद मिलेगी, जिस पर उनका भविष्य निर्भर होगा। शहरी बच्चों को विशेष रूप से उन वयस्कों की आवश्यकता होती है जो प्राकृतिक दुनिया को देखने में उनकी मदद कर सकते हैं। इस बात के कई सबूत हैं कि जो बच्चे प्रकृति से दूर रहकर बड़े होते हैं उनमें व्यावहारिक रूप से या फिर कई दूसरे तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं, जो उनके लिए हानिकारक हो सकते हैं। रिचर्ड लोव नाम के एक लेखक ने इसे प्रकृति की कमी के कारण होने वाला विकार, “नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर’ बताया है। उनका मानना है कि अगर बच्चा प्रकृति के साथ पर्याप्त समय नहीं बिताता तो उसके चिंता या अवसाद में होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। इस देश की दार्शनिक जड़ों तक अगर हम जाएं तो भी यही सच हमारे सामने आएगा कि हम इस धरती से हैं, यह पृथ्वी और ग्रह हमसे नहीं हैं। जंगल हमें प्राकृतिक दुनिया में व्यापक और गहरे संबंधों को समझने की अनुमति देता है, जिस दुनिया का मनुष्य केवल एक छोटा और कमजोर हिस्सा है। क्योंकि जंगलों की दुनिया केवल सुंदरता के बारे में नहीं है बल्कि शहरी, कृषि और आर्थिक क्षेत्र कहीं न कहीं एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़े हैं जो पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर है। चाहे वह पानी, औषधीय पौधों, अपशिष्ट प्रबंधन, जंगली खाद्य पदार्थ या फिर मछली पालन हो, इन सबके लिए हमें जैव विविधता की आवश्यकता है। जब युवा इस बात को बौद्धिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर समझने लगेंगे, तो वे भी इसमें भागीदारी करने लगेंगे।

पिछले साल से दुनिया भर के बच्चे, लोगों को यह बताने के लिए सड़कों पर आ रहे हैं कि हमें धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाना है। वे समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन होने लगा है और वे अपना भविष्य बचाने के लिए अब तुरंत कोई एक्शन चाहते हैं। भारत में, बच्चों के भविष्य को बचाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। गर्मियों की छुट्टियां परिवारों के लिए प्रकृति के बीच जाने और यह समझने का एक अच्छा समय है कि ऐसा क्या है जो पहले से मौजूद है और हमें उसकी रक्षा करनी है। यदि बच्चे गर्मी में बाहर नहीं जा सकते हैं, तो घर के अंदर भी करने के लिए बहुत कुछ है। हमारे अपने घरों में और उसके आस-पास जीवन एक आश्चर्यजनक मात्रा में छिपा हुआ है जिसे बारीकी से देखकर बहुत कुछ समझा जा सकता है। कीड़े, पक्षी और छोटे जानवर हर जगह हैं, जैसे कि पौधे और पेड़ हैं। कई आकर्षक और डिजिटल तरीके भी हैं जिनके माध्यम से आप खुद को जंगल से जोड़ सकते हैं। कई लोग टीवी चैनलों पर वाइल्ड लाइफ डॉक्यूमेंट्री देखते हैं। कुछ वर्चुअल रिएलिटी वीडियोज भी हैं, जो आपको शेरों और हाथियों के आमने-सामने ले आते हैं। इसे देख आप डर और उत्साह साथ महसूस करते हैं।

यह तकनीक सार्वजनिक पुस्तकालयों या कॉलेजों में मिलनी चाहिए, ताकि हजारों छात्र जंगल का अनुभव ले सकें। वेब आधारित प्लेटफॉर्म भी मौजूद है, जहां लोग जो भी देखते हैं उसे रिकॉर्ड कर सकते हैं, इससे समय के साथ जो कुछ हो रहा है उसकी बदलती तस्वीर बनाने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए सीजन वॉच पर बच्चे फूल खिलते, या पक्षियों का अंडे से बाहर निकलना दर्ज कर सकते हैं। जैसे ई-बर्ड एप है, जो लोगों को यह रिकॉर्ड करने का मौका देता है कि उन्होंने कौन-सा पक्षी देखा। भले ही वह मैना, बुलबुल या कौवा हो। जब कई लोग इसमें भाग लेते हैं, तो एक पैटर्न बनने लगता है और हम बहुत कुछ सीख जाते हैं। इससे लोग समझ गए हैं कि अब हमें भी अपने प्राकृतिक खजाने को बहाल करने के लिए अपने बायोफीलिया को फिर से खोजना होगा। फिर हमारे पास आनंद लेने के लिए भी कुछ होगा और अपने बच्चों के भविष्य के लिए बहुत कुछ छोड़ जाने को भी। आखिर यही विरासत भविष्य में सबसे मूल्यवान होगी।